तो क्या इलाहाबाद विश्वविद्यालय शिक्षामंत्री से कराने जा रहा अकादमिक पाप, माननीय न्यायालय के निर्णय के बाद धूमिल दीक्षांत का रंग


यूँ तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रस्तावित दीक्षांत समारोह में पदकों को लेकर छात्रों के भिन्न भिन्न आरोप काफी समय से लग रहे थे लेकिन पिछले सोमवार को मा. इलाहाबाद हाईकोर्ट के "अभिषेक कुमार सिंह बनाम कुलपति इलाहाबाद विश्वविद्यालय और चार अन्य" की याचिका में दिये गये आदेश की टिप्पणियों, पक्ष-विपक्ष के तर्कों और कोर्ट के अवलोकन को ध्यान में रखा जाये तो बात सिर्फ़ अर्थशास्त्र के पदक की सूची रद्द करने तक सीमित नहीं है बल्कि कई गंभीर अकादमिक अनियमितताओं का भी पर्दाफाश होता दिखता है।

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अगर हम आदेश के अवलोकन के हिसाब से भी चले तो पैरा नम्बर 8 में विश्वविद्यालय के अधिवक्ता की स्वीकृति है कि वो कोई भी कानून सम्मत मानक और प्रणाली जो पदक निर्धारण में अपनाई गई हो बताने में असमर्थ है और उनके अनुसार ऐसी कोई वैधानिक प्रणाली है ही नहीं। तो क्या यह माना जाए कि एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के दीक्षांत के पदक बस लोहे के सजावटी समान भर हैं।

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अगर मुख्य विवाद जो सामान्य प्रोन्नति को लेकर उठाया गया है का विश्लेषण करें तो विश्वविद्यालय ने कोर्ट को बताया कि आंतरिक मूल्यांकन करवाने के बाद अगले सेमेस्टर में 10% की वृद्धि की गई लेकिन कोर्ट इसको खारिज करते हुये कहता है कि परीक्षा समिति की 15 जून 2020 को हुई बैठक में ही अलग निर्णय लिये गये जिसमें पिछले सेमेस्टर का सम्पूर्ण प्रदर्शन और आंतरिक मूल्यांकन में परियोजना कार्य की संस्तुति की गई थी। तो फिर आश्चर्य होता है कि विश्वविद्यालय अपनी मिटिंग के मिन्टस या तो कोर्ट के समक्ष क्यों नहीं रख पाया या फिर परीक्षा समिति के निर्णय हाथी के दांत थे यूजीसी को दिखाने के लिए जबकि अंदर कोई बड़ा खेल किया गया मूल्यांकन में।

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जब विश्वविद्यालय के सभी अधिकारी SGPA और अंकों के तुलनात्मक मानकों का हवाला देकर संस्कृत और दर्शन के पदक देते हैं तो फिर आदेश के पैरा 10 में विश्वविद्यालय के अधिवक्ता उन्हीं प्रक्रियाओं को विश्लेषित करने में खुद को क्यों असमर्थ बताते हैं? या फिर कुलासचिव और परीक्षा नियंत्रक न्यायालय के समक्ष अपनी प्रक्रियाओं को क्यों नहीं खुद हाज़िर हो स्पष्ट करते ?

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हो सकता है ये बातें सिर्फ संदेहास्पद हो लेकिन आदेश का पैरा 11, हजारों छात्रों के भविष्य पर तलवार लटका सकता है जहाँ कोर्ट स्पष्ट कहता है कि " The method adopted while calculating SGPA was not proper, even if the same method of adding 10% increment of marks in the end semester of the previous semester was adopted. The same has not been done correctly ". तो क्या परीक्षा समिति की गणना में दोष है ? तो भविष्य में इविवि के अंकपत्रों पर छात्रों की नियुक्ति इत्यादि रूकती है तो ज़वाब कौन देगा ?

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क्यों विश्वविद्यालय के अधिवक्ता ये कहते हैं कि प्रोमोशन के कोई भी मानक यूजीसी द्वारा नहीं दिये गये हैं जब प्रो एच०सी० कुहाड़ कमीशन की रिपोर्ट और उच्चतम न्यायालय के आदेश विश्वविद्यालय की प्रक्रिया के पहले ही आ चुके थे ? क्या इन अवहेलनाओ के आधार पर कोर्ट ने इविवि की परीक्षा समिति की वैधानिक पर ही सवाल उठा दिये ? तो क्या जब परीक्षा समिति न्यायालय की नज़र में अपरिपक्व है तो परीक्षा परिणामों को क्या माना जायेगा? आखिर खुद का आर्डिनेंस और नियम होने के बावजूद क्यों इविवि कोर्ट में निरूत्तर हो गया ?

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और अगर "अभिषेक कुमार सिंह बनाम कुलपति इविवि और चार अन्य" के आदेश में न्यायाधीश मंजू रानी चौहान को यह कहना पड़ता है कि कोर्ट के पास सिर्फ यही विकल्प है कि अर्थशास्त्र, संस्कृत, दर्शनशास्त्र और अन्य विषयों की  SGPA के आधार पर बनी पूरी सूची को रद्द करे लेकिन पूरे दीक्षांत का सम्मान करते हुये सिर्फ अर्थशास्त्र की ही सूची रद्द किया जाता है। तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि न सिर्फ परास्नातक में  SGPA के आधार पर दिये जाने वाले सभी पदक अमान्य है बल्कि कोरोना काल में हुई सारी प्रोन्नति भी आधारहीन है।

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तो क्या विश्वविद्यालय को एक स्वतंत्र समिति बनाकर परास्नातक के सारे पदकों का पुर्नर्निधारण नहीं करना चाहिए? क्या सामान्य प्रोन्नति के परिणाम का यूजीसी के अनुसार सुधार नहीं करना चाहिए? इविवि को शिक्षा मंत्री के हाथों से अकादमिक पाप तो नहीं ही करवाना चाहिये।

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"दुर्घटना से देर भली, सत्यानाश से सुधार भला"

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